Thursday, November 12, 2015

कुछ नहीं...

कुुछ नहीं!!

खुश थी मैं अपने आप में, न जाने किस पल किसी ने पूँछा
    "क्या अभिलाषा है तेरी?"
      मैैंने हँस कर कहा ,"कुछ नहीं"...

खुशियाँ यूँ अकारण ही नहीं उठतीं
    वो तो पवित्र थे मेरे करम और विचार
    ऐसे था दुनिया में मैने कदम रखा
          बाहर का सौंदर्य था बहुत भाया
          इसकी गलियों में बहुत कुछ था पाया

पर चली
  जब मैं...

रास्ते में थें बहुत से पत्थर
   खाई मैंने ठोकर
   और गिरी मैं बेसुध हो कर,
      किसी नें पूँछा क्या हुआ?..
      मैंने हँस कर कहा ,"कुछ नहीं.."

बढ़ी आगे तो मिले कुछ राही
               नाम थे जिनके
- अहं , दुःख अौर घृणा.....
जब साथ मैं इनके लगी चलने
छा गए मेरी इस दुनिया में काले बादल
   मैंने सोचा मेरे आगे ये सब कुछ नहीं
      चल पड़ी मैं उन राहगीरों के साथ...


ज़िंदगी में मेरी बढ़ती गई ये अंधेरी रात
  झेलती गई हर वो दर्द-ऐ-सितम
    दे गया जो गहरे ज़ख्म
    भूली मैं लक्ष्य को

आँखों मे आए हर उस आँसू को पी गई
और कहा कुछ नहीं...

मेरी हर एक खुशी
      हर वो पल...
जिस पर मुझे था अभिमान
हो गया चूर
      बस साथ था बस एक राही
      जिसका नाम था तन्हाई
      जो थी मुझमें समाई...

जब हर लम्हा जीना था मुश्किल
प्यार से मैंने उसे गले लगाया

मेरे आँसूं पोंछ उसने पूँछा ,
"..क्या हुआ..."
मैंने हँस कर कहा ,
"..कुछ नहीं..."





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