Tuesday, November 3, 2015

दर्द...(edited)


हुआ था कुछ यूं
कि अपने ना संभाल पाए
..
छोटी सी चिड़िया की किस्मत ना बदल पाए
नन्हे से परिन्दे की किस्मत ना बदल पाए


है मौजू़द वो बुझता सा दर्द उसमें
लौ है जिसकी गिरती और संभलती
..
आए गए ना जाने कितने तूफ़ाँ
पर सख्त-जां-लौ ना डिगा पाए
वो सुलगता सा दर्द ना बुझा पाए


उसको तो अब इंतज़ार है उस बारिश का
जो उस दर्द की आग को कुछ यूं बुझा जाए-
कुछ यूं बुझा जाए,
कि भड़कने वाले शोले खुद शबनम बन जाएँ

3 comments:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति।

    सादर

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    1. thank you so much sir.. suggest me any improvements required...

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    2. This comment has been removed by the author.

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